मीत सुजान अनीत करौ जिन, हाहा न हूजियै मोहि अमोही। दीठि कौ और कहूँ नहिं ठौर फिरी दृग रावरे रूप की दोही। एक बिसास की टेक गहें लगि आस रहे बसि प्रान-बटोही। हौं घनआनंद जीवनमूल दई ! कित प्यासनि मारत मोही।।
हिंदी समय में घनानंद की रचनाएँ