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कविता

मीत सुजान अनीत करौ जिन

घनानंद


मीत सुजान अनीत करौ जिन, हाहा न हूजियै मोहि अमोही।
दीठि कौ और कहूँ नहिं ठौर फिरी दृग रावरे रूप की दोही।
एक बिसास की टेक गहें लगि आस रहे बसि प्रान-बटोही।
हौं घनआनंद जीवनमूल दई ! कित प्यासनि मारत मोही।।


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